|| श्री सीतारामाभ्यां नमः ||

|| श्री सीतारामाभ्यां नमः ||

|| श्री सीतारामाभ्यां नमः ||

श्री हनुमान गढ़ी

अयोध्या जी

समस्त भारतमें अञ्ञनीनन्दन पवनतनय श्रीहनुमानजीका महत्त्व पूजा एवं उपासनाकी दृष्टिसे अप्रतिम है। श्रीहनुमानजीके उपासक, पूजक न केवल सनातन- धर्मावलम्बी ही हैं, अपितु अन्य मतावलम्बी भी हैं। शाक्त, शैव आदि सम्प्रदायोंके लोग भी श्रीहनुमानजीकी पूजा-अर्चना श्रद्धासे करते हैं। शास्त्रका सिद्धान्त है कि ‘कार्य कारणमन्तरेण नोत्यद्यते ‘ अर्थात्‌ कोई भी कार्य कारणके बिना उत्पन्न नहीं होता। अतः श्रीहनुमानजीकी इस महती लोकप्रियताके मूलमें निश्चितरूपसे कोई प्रबल कारण छिपा हुआ है। संस्कृत-वाड्ममयमें श्रीहनुमानजीकी कीर्तिवैजयन्ती सर्वत्र फहरा रही है। इन्हें शिवका अवतार माना जाता है। उत्सव एवं ब्रत-सम्बन्धी प्रायः सभी निबन्ध- कथाओंमें, विशेषत: वायुपुराणमें इनके विषयमें स्पष्टरूपसे यह वचन प्राप्त होता है–   आश्विनस्यासिते पक्षे स्वात्यां भौमे चर मारुतिः। मेषलग्रेउञ्जनागर्भातू स्वयं जातो हरः शिव:॥   अर्थात्‌ आश्विन (चान्बधमास-कार्तिक) -के कृष्णपक्षकी चतुर्दशी तिथिको स्वाती नक्षत्र और मेष लग्नमें माता अजझनाके गर्भसे स्वयं भगवान्‌ शंकर ही प्रकट हुए। किसीके व्यक्तित्व, स्वभाव, बल, पौरुष आदिका परिचय प्राप्त करनेके लिये उसके विषयमें स्वयंका कथन, तत्कालीन व्यक्तियोंका वर्णन, उसके विरोधियोंके कथन आदि प्रधान साधन माने जाते हैं। इस दृष्टिसे हमें श्रीहनुमानजीके विषयमें विचार करनेपर उनका लोकोत्तर एवं दिव्य स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। ऋक्षराज जाम्बवानूजी कहते हैं–  

हनूमन्‌ हरिराजस्य सुग्रीवस्य समो हासि। रामलक्ष्मणयोश्रापि तेजआ च बलेन च॥ पक्षयोर्यद्‌ बल॑ तस्य भुजवीर्यबलं॑ तव। विक्रमश्नापि वेगश्च॒ न ते तेनापहीयते॥ बल॑ बुद्धिश्व॒ तेजश्व सत्त्वं॑ च हरिपुंगव। विशिष्ट सर्वभूतेषु किमात्मानं न॒ बुध्यसे ॥ (वा० रा० ४।६६। ३, ६-७)

“हनुमानजी ! तुम वानरराज सुग्रीवके तुल्य हो। यही नहीं, प्रत्युत तेज तथा बलमें तुम श्रीरामचन्द्रजी और श्रीलक्ष्मणजीके समान हो। गरुड़जीके दोनों पंखोंमें जितना बल है, तुम्हारी दोनों भुजाओंमें भी उतना ही बल और पराक्रम है। अत: तुम्हारा विक्रम एवं वेग भी उनसे किसी प्रकार कम नहीं है। वानरश्रेष्ठ ! तुम्हारा बल, बुद्धि, तेज तथा सत्त्व (उत्साह) समस्त प्राणियोंसे विशिष्ट अर्थात्‌ अधिक है। फिर तुम अपना स्वरूप क्यों नहीं पहचानते ?! श्रीजाम्बवान्‌के उपर्युक्त वचन श्रीहनुमानजीके बल, बुद्धि, तेज और सत्त्वके विषयमें कितना महत्त्वपूर्ण चित्र उपस्थित करते हैं। वानरराज सुग्रीव हनुमानजीसे कहते हैं–

न भूमौ नान्तरिक्षे वा नाम्बरे नामरालये। नाप्सु वा गतिभड्ं ते पश्यामि हरिपुंगव॥ सासुरा: सहगन्धर्वा: सनागनरदेवता:। विदिताः सर्वलोकास्ते ससागरधराधरा: ॥ गतिवेंगश्च॒ तेजश्च लाघवं च महाकपे। पितुस्ते सदृशं वीर मारुतस्य महौजस:॥ तेजसा वापि ते भूतं न सम॑भुवि विद्यते। तद्‌ यथा लभ्यते सीता तत्त्वमेवानुचिन्तय ॥ त्वव्येव हनुमन्नस्ति बल॑ बुद्धि: पराक्रम:। देशकालानुवृत्तिश्च॒ नयश्च॒ नयपण्डित॥ (वा० रा० ४। ४४। ३–७)

‘वानरश्रेष्ट। मैं देखता हूँ कि भूमि, अन्तरिक्ष, आकाश, अमरालय अथवा जलमें भी तुम्हारी गतिका अवरोध नहीं है। तुम असुर, गन्धर्व, नाग, नर, देवता, सागर और पर्वतोंसहित समस्त लोकोंको जानते हो। वीर महाकपे! गति, वेग, तेज और फुर्ती–ये सभी सदुण तुममें अपने महापराक्रमी पिता वायुके ही समान हैं। तुम्हारे समान इस पृथ्वीपर दूसरा कोई तेजस्वी नहीं है। अतएव वीर! ऐसा प्रयत्न करो जिससे सीताका (शीघ्र) पता लग जाय। नीतिशास्त्रविशारद हनुमान! तुममें बल, बुद्धि, विक्रम तथा देश एवं कालका अनुसरण और नीतिका ज्ञान भी पूर्णरूपसे है।’ महर्षि अगस्त्यसे भगवान्‌ श्रीराघवेन्द्र कहते हैं-

अतुलं बलमेतद्‌ वै वालिनो रावणस्थ च। नत्वेताभ्यां हनुमता सम त्विति मतिर्मम॥ शौर्य दाक्ष्यं बल॑ थेर्य॑ प्राज्ताः नयसाधनम्‌। विक्रमश्च॒ प्रभावश्ष॒ हनूमति कृतालया:॥ दृष्टैब सागर वीक्ष्य सीदन्तीं कपिवाहिनीम्‌। समाश्रास्य महाबाहुर्योजनानां शतं प्लुतः॥ धर्षयित्वा पुरी लड्ढां रावणान्तः:पुरं तदा। दृष्टा सम्भाषिता चापि सीता ह्याश्वासिता तथा॥ सेनाग्रगा मन्त्रिसुताः किंकरा रावणात्मज:। एते हनुमता तत्र एकेन विनिपातिताः॥ भूयो बन्धाद्‌ विमुक्तेन भाषयित्वा दशाननम्‌। लड्ढा भस्मीकृता येन पावकेनैव मेदिनी॥ न कालस्य न शक्रस्य न विष्णोर्वित्तपस्थ च। कर्माणि तानि श्रूयन्ते यानि युद्धे हनूमतः॥ एतस्य बाहुवीयेंण लट्ढा सीता च लक्ष्मण:। प्राप्ता मया जयश्वैव राज्यं मित्राणि बान्धवा:॥ हनूमान्‌ यदि मे न स्थाद्‌ वानराधिपते: सखा। प्रवृत्तिमपि को वेत्तुं जानक्या: शक्तिमान्‌ भवेत्‌॥ (वा० रा० ७। ३५। २–१०)

“यद्यपि वाली और रावणमें अतुल बल था, तथापि मेरी समझमें ये दोनों भी हनुमानजीके समान न थे। शौर्य, दक्षता, बल, थैर्य, प्राज्ञता, नीतिपूर्वक कार्य करनेकी क्षमता, पराक्रम तथा प्रभाव इन सभी सदगुणोंने हनुमानजीके भीतर घर कर रखा है। सीताके अन्वेषणमें तत्पर वानरी सेना समुद्रको देखकर जब विकल हो रही थी, तब महावीर हनुमानने उसे आश्वासन दिया तथा वे सौ योजन समुद्रको लाँघ गये। पुनः लंकापुरीकी अधिष्ठात्री राक्षमीको परास्तकर उन्होंने रावणके अन्तःपुरको देखा, सीताका पता लगाया, उनसे वार्तालाप करके उन्हें ढाढ्स बाँधाया। पुनः वीर हनुमानने अकेले ही रावणके सेनापतियों, मन्त्रिपुत्रों, किंकरोंका तथा रावण- पुत्र अक्षकुमारका वध किया। पश्चात्‌ ब्रह्मास्त्रके बन्धनसे छूटकर उन्होंने रावणसे वार्तालाप करते हुए उसे फटकारा और अग्नि जैसे पार्थिव पदार्थोको जलाती है, उसी प्रकार लंकापुरीको जलाकर भस्म कर दिया। युद्धेके समय हनुमानजीने जो अद्वितीय पराक्रमके कार्य किये, वैसे काल, इन्द्र, विष्णु तथा कुबेरके भी नहीं सुने जाते। इन्हींके बाहुबलसे मैंने लंका, सीता, लक्ष्मण, राज्य, मित्र और बान्धवोंको प्राप्त किया है। अधिक क्या कहूँ, यदि वानराधिपति सुग्रीवके मित्र श्रीहनुमानजी न होते, उनकी सहायता मुझे न मिलती तो सीताका पता भी कौन लगा सकता था?! श्रीहनुमानजी लंकामें रावणके अन्तःपुरमें जाकर वहाँके दृश्यको देखनेके अनन्तर विचार करते हैं–

परदारावरोधस्य प्रसुप्रयथ निरीक्षणम्‌। इदं खलु ममात्यर्थ धर्मलोपं॑ करिष्यति॥ न हि मे परदाराणां दृष्टिविषयवर्तिनी। काम॑ दृष्टा मया सर्वा विश्वस्ता रावणस्त्रियः। न तु मे मनसा किंचिद्‌ वैकृत्यमुपपद्यते॥ मनो हि हेतुः सर्वेषामिन्द्रियाणां प्रवर्तने। शुभाशुभास्ववस्थासु _तच्च मे सुव्यवस्थितम्‌॥ (वा० रा० ५। ११। ३८-३९, ४१-४२)

रावणके अन्त:पुरमें प्रसुप्त स्त्रियोंका मैंने दर्शन किया। कहीं यह कार्य मेरे धर्मका लोप तो न कर देगा इत्यादि? पुनः स्वयं ही इसका समाधान करते हुए वे कहते हैं कि यद्यपि मैंने रावणकी स्त्रियोंका दर्शन किया है, तथापि मेरे मनमें कोई विकार उत्पन्न नहीं हुआ है। समस्त इन्द्रियोंकी शुभाशुभ-प्रवृत्तिमें मन ही कारण होता है और मेरा वह मन सर्वथा विकारशून्य रहा है, अतः धर्मलोपका यहाँ कोई प्रसंग नहीं है।’ इस उत्तिसे श्रीहनुमानजी परमयोगी सिद्ध होते हैं। रावण भी कहता है–

न हाहं त॑ कपिं मन्ये कर्मणा प्रति तर्कयन्‌। (वा० रा० ५।४६। ६)

उसके अदभुत पराक्रमको जानते हुए मैं उसे वानरमात्र नहीं मान सकता।’ उसे इन्द्र आदिने अपने तपोबलसे हमारे विनाशके लिये वानररूप बनाया होगा। सेनापतियो! आपलोग उसका अपमान न करना; क्योंकि वह अत्यन्त धीर एवं पराक्रमशाली है। मैंने वाली, सुग्रीव आदिको भी देखा है, परंतु उन सबकी इस वानरकी गति, तेज, पराक्रम, मति, बल, उत्साह आदिमें तुलना नहीं की जा सकती।

महत्सत्त्वमिदं॑ ज्ञेयं कपिरूपं॑ व्यवस्थितम्‌॥ (वा० रा० ५।४६। १४)

यह वानररूपमें निश्चित ही कोई महाबलशाली अलौकिक पौरुषसम्पन्न प्राणी है।” इस प्रकार रावण- जैसा दुर्दान्त शत्रु हनुमानजीसे आन्तरिक रूपसे भयाक्रान्त हो जाता है। इसलिये श्रीहनुमानजीकी दिव्यतामें कोई संशयका स्थान ही नहीं हो सकता। रामरहस्योपनिषद्‌ के आधारपर श्रीहनुमानजी ब्रह्म- ज्ञानियोंमें सर्वोत्तम ज्ञानीके रूपमें उपलब्ध होते हैं–

सनकाद्या योगिवर्या अन्ये च ऋषयस्तथा। प्रह्दाद्या. विष्णुभक्ता. हनुमन्तमथाब्रुवन्‌॥ वायुपुत्र महाबाहो कि तत्त्व ब्रह्मवादिनाम्‌। पुराणेष्वष्टादशसु स्मृतिष्वष्टादशस्वपि॥ चतुर्वेदेषु शास्त्रेषु विद्यास्वाध्यात्मिकेषपि च। सर्वेषु.. विद्यादानेषु विध्नसूर्येशशक्तिषु। एतेषु मध्ये कि तत्त्व कथय त्वं महाबल॥ (१। २–४)

ऋषिगण, प्रह्मद आदि विष्णु-भक्त तथा योगियों एवं ज्ञानियोंमें श्रेष्ठ सनकादि भी श्रीहनुमानजीके पास जाकर जिज्ञासापूर्वक प्रश्न करते हैं–‘महाबाहु वायुपुत्र ! अठारह पुराणों, अठारह स्मृतियों, चारों वेदों, छहों शास्त्रों, सभी विद्याओं तथा आध्यात्मिक शास्त्रमें ब्रह्मवादियोंका तत्त्व क्या है? अर्थात्‌ ब्रह्मवगादी किस तत्त्वको यथार्थ सत्य मानते या ब्रह्मरूपसे समझते हैं। सम्पूर्ण विद्याओंके दानमें तथा गणेश, सूर्य, शिव और शक्ति–इनमें यथार्थ तत्त्व क्या है? महाबली हनुमानजी! हम सबपर अनुग्रह करके आप उस तत्त्वका कथन कीजिये।”’ इस प्रकार सनकादि-जैसे ब्रह्मज्ञानियोंका जिज्ञासुरूपसे श्रीहनुमानजीसे तत्त्वविषयक प्रश्न करना तथा उन्हें उनके द्वारा उपदेश दिया जाना स्पष्टतया श्रीहनुमानजीकी तत्त्वदर्शिताका परिचायक है। इन्हीं सब कारणोंसे संतशिरोमणि गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी श्रीरामचरितमानसके सुन्दरकाण्डमें श्रीहनुमानजीकी वन्दना करते हुए उनके उपर्युक्त गुणगणविशिष्ट स्वरूपका वर्णन करते हैं–

अतुलितबलधामं॑ हेमशैलाभदेहं दनुजवनकृशानु ज्ञानिनामग्रगण्यम्‌। सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि॥

प्रसन्नता तथा आनन्दका विषय यह है कि श्रीहनुमानजी आज भी हम सबकी आराधनाके आधारपर हमारे कष्टोंको दूर करते हैं, हम सबकी चित्तवृत्तिको दैवी शक्तिकी ओर उन्मुख करते हैं एवं अपनी अदृश्य प्रेरणासे भगवानमें श्रद्धा एवं भक्तिका स्रोत प्रवाहित करते हैं। भगवान्‌ श्रीरामने स्पष्ट शब्दोंमें श्रीहनुमानजीसे कहा है–

मत्कथा: प्रचरिष्यन्ति यावल्‍लोके हरीश्वर॥ तावद्‌ रमस्व सुप्रीतो मद्दाक्यमनुपालयन। (वा० रा० ७। १०८। ३३३)

वानरराज ! जबतक लोकमें मेरी कथाओंका प्रचार रहे, तबतक तुम मेरी आज्ञाका पालन करते हुए प्रसन्नतापूर्वक विचरते रहो।’ श्रीहनुमानजी भगवान्‌ श्रीरामकी आज्ञा सहर्ष शिरोधार्य करते हुए कहते हैं–

यावत्‌ तव कथा लोके विचरिष्यति पावनी॥ तावतू स्थास्यामि मेदिन्यां तवाज्ञामनुपालयन। (वा० रा० ७।१०८। ३५३)

‘भगवन्‌ ! जबतक संसारमें आपको पावन कथाका प्रचार रहेगा, तबतक मैं आपकी आज्ञाका पालन करता हुआ भूमण्डलपर अवस्थित रहूँगा।’

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