|| श्री सीतारामाभ्यां नमः ||

|| श्री सीतारामाभ्यां नमः ||

|| श्री सीतारामाभ्यां नमः ||

श्री हनुमान गढ़ी

अयोध्या जी

संकष्टमोचनस्तोत्रम्‌ 

(ब्रह्मलीन काशीपीठाधीश्वर जगदगुरु शंकराचार्य स्वामी श्रीमहेश्वरानन्दसरस्वतीविरचित)

सिन्दूरपूररुचिरो बलवीरयय॑सिन्धुर्बुद्धिप्रवाहनिधिरद्धुतवैभवश्री: ।
दीनारतिदावदहनो वरदो वरेण्य: संकष्टमोचनविभुस्तनुतां शुभं नः॥१॥

जो सिन्दूर-स्रानसे सुन्दर देहयुक्त, बल-वीर्यके सागर, बुद्धि-प्रवाके आकर और अद्भुत ऐश्वर्यके
धाम हैं, जो दीनोंके दुःखोंका नाश करनेके लिये दारुण दावानलके समान हैं तथा जो वरदान-तत्पर, सर्वकामपूरक,
संकटघटाविदारक और सर्वव्यापी हैं, वे संकटमोचन प्रभु हमलोगोंके लिये मड्गरलकारी हों॥१॥

सोत्साहलड्वितमहार्णवपौरुषश्रीर्लझ्लपुरी प्रदहनप्रथितप्रभाव: ।
घोराहवप्रमधितारिचमूप्रवीर: प्राभज्जनिर्जयति मर्कटसार्वभौमः ॥ २॥

उन वानरराज-चक्रवर्तीकी जय हो, जो उत्साहपूर्वक महासिन्धुको लाँघ गये, जिनकी पुरुषार्थ-लक्ष्मी
देदीप्यमान है, लंकानगरीके दहनसे जिनकी प्रभाव-प्रभा दिग्दिगन्तव्याप्त है और जो घोर राम-रावण-युद्धमें
शत्रु-सेनाका मथन करनेमें महान्‌ वीर तथा प्रभञझ्ञन-पवनको आनन्द देनेवाले–पवनकुमार हैं॥२॥

द्रोणात्ललानयनवर्णितभव्यभूतिः श्रीरामलक्ष्मणसहायकचक्रवर्ती ।
काशीस्थदक्षिणविराजितसौधमल्ल: श्रीमारुतिर्विजयते भगवान्‌ महेशः॥ ३॥

जो संजीवनीके लिये द्रोणगिरिको ही उठा लाये थे, जो सुन्दर भव्य विभूतिसम्पन्न, श्रीराम-लक्ष्मणके
सेवक-सहायकोंमें चक्रवर्तिशिरिमणि और मल्लवीर काशीपुरीके दक्षिण भाग-स्थित दिव्य भवनमें विराजमान
हैं, ऐसे महेश–रुद्रावतार भगवान्‌ मारुतिकी जय हो॥३॥

नून॑ स्मृतो5पि दयते भजतां कपीन्द्र: सम्पूजितो दिशति वाउिछतसिद्धिवृद्धिम्‌।
सम्मोदकप्रिय उपैति परं प्रहर्ष रामायणश्रवणतः पठतां शरण्य:॥ ४॥

वे वानरराज स्मरणमात्रसे भक्तोंपर दया करनेवाले हैं और विधिपूर्वक सम्पूजित होनेपर सभी मनोरथोंकी
तथा सुख-समृद्धिकी पूर्ति-वृद्धि करनेवाले हैं। वे मोदक (लड्डू)-प्रिय अथवा भक्तोंको विशेष मुदित
करनेवाले हैं। रामायण-श्रवणसे उन्हें परम हर्ष प्राप्त होता है और वे पाठकोंकी पूर्णतया रक्षा करनेवाले
हैं॥ ४॥

श्रीभारतप्रवरयुद्धरथोद्धतश्री: पार्थेककेतनकरालविशालमूर्ति: ।
उच्चैर्घनाघनघटाविकटाइहास: श्रीकृष्णपक्षभरण: शरणं ममास्तु॥ ५ ॥

महाभारत-महायुद्धमें रथपर जिनकी शोभा समुद्यत हुई है, पृथानन्दन अर्जुनके रथकेतुपर जिनकी विकराल
विशाल मूर्ति विराजमान है, घनघोर मेघ-घटाके गम्भीर गर्जनके समान जिनका विकट अट्टहास है, ऐसे श्रीकृष्णपक्ष
(पाण्डव-सैन्य)-के पोषक (अद्भुत चन्द्र) मेरे शरणदाता हों॥५॥

जड्जालजड्ड उपमातिविदूरवेगो मुष्टिप्रहारपरिमूर्च्छितराक्षसेन्द्र: ।
श्रीरामकीर्तितपराक्रमणोद्धवश्री: प्राकम्पनिर्विभुरुदज्चतु भूतये न: ॥ ६ ॥

उन विशाल जज्जवाले श्रीहनुमानका वेग उपमासे रहित–अनुपम है, जिनकी मूुष्टिके प्रहारसे राक्षसराज
रावण मूच्छित हो गया था, जिनके पराक्रमकी अद्भुत श्रीका कीर्तन स्वयं भगवान्‌ श्रीराम करते हैं, ऐसे
प्रकम्पन (मारुत)-नन्दन, सर्वव्यापक श्रीहनुमान हमें विभूति प्रदान करनेके लिये तत्पर हों॥६॥

सीतार्तिदारुणपटु: प्रबल: प्रतापी श्रीराघवेन्द्रपरिरम्भवरप्रसाद:।
वर्णीश्वरः सविधिशिक्षितकालनेमि: पञ्चाननोउपनयतां विपदोषधिदेशम्‌॥ ७ ॥

सीताके शोक-संतापके विनाशमें निपुण, प्रबल प्रतापी श्रीहनुमान भगवान्‌ श्रीराघवेन्द्रके आलिज्गनरूप दिव्य
वर-प्रसादसे सम्पन्न हैं। जो वर्णियों–ब्रह्मचारियोंके शिरोमणि तथा कपट-साधु कालनेमिको विधिवत शिक्षा
देनेवाले हैं, वे पञ्ममुख हनुमानजी हमारी विपत्तियोंका सर्वथा अपसारण (दूर) करें॥७॥

उद्यद्धानुसहस्त्रसंनिभतनु: पीताम्बरालंकृतः
प्रोज्ज्ञालानलदीप्यमाननयनो निष्पिष्टरक्षोगण:।
संवर्तोद्यतवारिदोद्धतरवः प्रोच्चैर्गदाविध्रम:
श्रीमान्‌ मारुतनन्दनः प्रतिदिन ध्येयो विपद्धज्न:॥ ८ ॥

जिनका श्रीविग्रह उदीयमान सहख्र सूर्यके सदृश अरुण तथा पीताम्बरसे सुशोभित है, जिनके नेत्र
अत्यन्त प्रज्जलित अग्निके समान उद्दीप्त हैं, जो राक्षस-समूहको नि:शेषतया पीस देनेवाले हैं, प्रलयकालीन
मेघ-गर्जनाके तुल्य जिनकी घोर गर्जना है, जिनके मुदर (गदा)-का भ्रमण अतिशय दिव्य है, ऐसे शोभा-
प्रभा-संवलित मारुतनन्दन विपद्विभञ्न श्रीहनुमानजीका प्रतिदिन ध्यान करना चाहिये॥८॥

रक्ष:पिशाचभयनाशनमामयाधिप्रोच्चैज्वरापहरणं दमन रिपूणाम्‌।
सम्पत्तिपुत्रकरणं विजयप्रदानं संकष्टमोचनविभो: स्तवनं नराणाम्‌॥ ९ ॥

संकट-मोचन प्रभु श्रीहनुमानका स्तवन (गुण-गान) मानवमात्रके लिये राक्षस-पिशाच (भूत-प्रेत) –
के भयका विनाशक, आधि-व्याधि-शोक-संताप-ज्वर-दाहादिका प्रशमन करनेवाला, शत्रु-दमन, पुत्र-सम्पत्तिका
दाता एवं विजय प्रदान करनेवाला है॥९॥

दारिद्रदुःखदहनं विजयं विवादे कल्याणसाधनममड्भलवारणं च।
दाम्पत्यदीर्घसुखसर्वमनोरथाप्तिं श्रीमारुतेः स्तवशतावृतिरातनोति॥ १०॥

श्रीमारुतनन्दनकी इस स्तुतिका सौ बार पाठ करनेसे दरिद्रता और दुःखोंका दहन, वाद-विवादमें विजय-
प्राप्ति, समस्त कल्याणमड्भलोंकी अवाप्ति तथा अमड्लोंकी निवृत्ति, गृहस्थ-जीवनमें दीर्घकालपर्यन्त सुख-प्राप्त
तथा सभी मनोरथोंकी पूर्ति होती है॥१०॥

स्तोत्र य एतदनुवासरमस्तकाम: श्रीमारुतिं समनुचिन्त्य पठेत्‌ सुधीर:।
तस्मै प्रसादसुमुखो वरवानरेन्द्र: साक्षात्कृतो भवति शाश्रतिकः सहाय: ॥ ११॥

जो कोई विवेकशील धीर मानव निष्कामभावसे श्रीमारुतनन्दनका विधिपूर्वक चिन्तन करते हुए इस
स्तोत्रका पाठ करता है, उसके समक्ष प्रसादसुमुख–परमसौम्य वानरेन्द्र श्रीहनुमानजी साक्षात्‌ प्रकट होते हैं
और नित्य उसकी रक्षा-सहायता करते हैं॥११॥

संकष्टमोचनस्तोत्रं शंकराचार्यभिक्षुणा।
महेश्वरेण रचितं मारुतेश्वरणेडर्पितम्‌॥ १२॥

भिक्षु (संन्यासी) शंकराचार्य श्रीमहेश्वर (श्रीमहेश्वरानन्दसरस्वती महाराज)-ने इस “संकष्टमोचनस्तोत्र ‘-
की रचना की है और वे इसे श्रीमारुतिके चरणोंमें समर्पित कर रहे हैं॥१२॥

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