|| श्री सीतारामाभ्यां नमः ||

|| श्री सीतारामाभ्यां नमः ||

|| श्री सीतारामाभ्यां नमः ||

श्री हनुमान गढ़ी

अयोध्या जी

वीताखिलविषयेच्छे जातानन्दाश्रुपुलकमत्यच्छम्‌।
सीतापतिदूताद्य॑ _वातात्मजमद्य भावये. हद्मम्‌॥ १॥
तरुणारुणमुखकमलं करुणारसपूरपूरितापाड्म्‌ ।
संजीवनमाशासे मझ्जुलमहिमानमझ्जनाभाग्यम्‌॥ २॥
शम्बरवैरिशरातिगमम्बुजदलविपुललोचनोदारम्‌ ।
कम्बुगलमनिलटिष्टं बिम्बज्वलितोष्टमेकमवलम्बे ॥ ३ ॥

जिनके हृदयसे समस्त विषयोंकी इच्छा दूर हो गयी है, (श्रीरामके प्रेममें विभोर हो जानेके कारण)
जिनके नेत्रोंमें आनन्दके आँसू और शरीरमें रोमाञ्न हो रहे हैं, जो अत्यन्त निर्मल हैं, सीतापति श्रीरामचन्द्रजीके
प्रधान दूत हैं, मेरे हृदयको प्रिय लगनेवाले उन पवनकुमार हनुमानजीका मैं ध्यान करता हूँ॥ १॥ बाल रविके
समान जिनका मुखकमल लाल है, करुणारसके समूहसे जिनके लोचन-कोर भरे हुए हैं, जिनकी महिमा
मनोहारिणी है, जो अझ्ञनाके सौभाग्य हैं, जीवनदान देनेवाले उन हनुमानजीसे मुझे बड़ी आशा है॥२॥ जो
कामदेवके बाणोंको जीत चुके हैं, जिनके कमलपत्रके समान विशाल एवं उदार लोचन हैं, जिनका शंख के
समान कण्ठ और बिम्बफलके समान अरुण ओ्ठ हैं, जो पवनके सौभाग्य हैं, एकमात्र उन हनुमानजीकी
ही मैं शरण लेता हूँ॥३॥

दूरीकृतसीतार्तिः प्रकटीकृतरामवैभवस्फूर्ति: ।
दारितदशमुखकीर्ति: पुरतो मम भातु हनुमतो मूर्ति:॥ ४॥
वानरनिकराध्यक्षं दानवकुलकुमुदरविकरसदृक्षम्‌ ।
दीनजनावनदीक्षं पवनतपः:पाकपुञझ्जञमद्राक्षम्‌॥ ५॥
एतत्‌ पवनसुतस्य स्तोत्र यः पठति पञ्चरत्नाख्यं | 
चिरमिह निखिलानू भोगान्‌ भुक्त्वा श्रीरामभक्तिभागू भवति॥ ६॥

जिन्होंने सीताजीका कष्ट दूर किया और श्रीरामचन्द्रजीके ऐश्वर्यकी स्फूर्तिको प्रकट किया, दशवदन रावणकी
कीर्तिको मिटानेवाली वह हनुमानजीकी मूर्ति मेरे सामने प्रकट हो॥४॥ जो वानर-सेनाके अध्यक्ष हैं,
दानवकुलरूपी कुमुदोंके लिये सूर्यकी किरणोंके समान हैं, जिन्होंने दीनजनोंकी रक्षाकी दीक्षा ले रखी है,
पवनदेवकी तपस्याके परिणामपुञ्न उन हनुमानजीका मैंने दर्शन किया॥५॥ पवनकुमार श्रीहनुमानजीके इस
‘पञ्जरत्र’ नामक स्तोत्रका जो पाठ करता है, वह इस लोकमें चिर-कालतक समस्त भोगोंको भोगकर श्रीराम-
भक्तिका भागी होता है॥६॥

॥ इति श्रीमदाद्यशड्डराचार्यकृतं हनुमत्पञ्नरत्रस्तोत्रम्‌॥

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